उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती जी ने लोकायुक्त की जांच और सिफारिशों के बाद अपने दो मंत्रियों को जितनी तत्परता से हटाया और उनके खिलाफ जांच के आदेश दिए हैं, उससे उनकी प्रशासनिक क्षमता कम, बेताबी ज्यादा नजर आ रही है। वह अपनी पार्टी और सरकार के सफाई अभियान में जुट गई लगती हैं, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए दोबारा अपनी दावेदारी पेश कर सकें। लोकायुक्त ने उच्च शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र को आय से अधिक संपत्ति रखने के साथ ही ग्रामीण इलाके में जमीन हथियाने का दोषी पाया था, जबकि श्रम मंत्री बादशाह सिंह सरकारी जमीन पर कब्जे के मामले में जांच के दायरे में थे।
इससे पहले अवधपाल सिंह और राजेश त्रिपाठी को भी मायावतीजी ने भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के आरोप में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाया था। वह धनंजय सिंह जैसे सांसद और कई विधायकों को भी पार्टी से निकाला जा चुका है। उनकी इन कार्रवाइयों के पीछे कहीं न कहीं, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारेजी के आंदोलन से पूरे देश भर में बना माहौल भी जिम्मेदार है। बेशक यह सवाल अपनी जगह है कि क्या राजनीतिक दल भ्रष्टाचार या लोकपाल के मुद्दे को लेकर वाकई गंभीर हैं, मगर यह सच है कि अब कोई भी दल या सरकार इस मुद्दे को नजरंदाज नहीं कर सकती। संभवतः इसी सियासी नब्ज को टटोलते हुए ही अन्ना हजारेजी ने केंद्र सरकार को आगाह किया है कि यदि संसद के शीतकालीन सत्र में प्रभावी जन लोकपाल विधेयक पारित नहीं हुआ, तो वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करेंगे। उनकी इस चेतावनी के बाद कांग्रेस में खलबली मच गई है, क्योंकि सूबे में वह अपनी खोई हुई जमीन हासिल करना चाहती है। जाहिर है, यदि अन्ना हजारेजी लखनऊ में सचमुच भूख हड़ताल पर बैठ जाते हैं, तब तो सबसे ज्यादा मुश्किल कांग्रेस को ही होगी। शायद इसीलिए पार्टी अब कांग्रेस महासचिव राहुल गांधीजी को आगे कर रही है, जिन्होंने अन्ना जी को राजनीतिक और लोकतांत्रिक तरीके से लड़ने की चुनौती दी है।
इसका सीधा मतलब है कि राजनीति करनी है, तो चुनाव लड़िए। मगर अब इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होगा। इसलिए प्रदेश के सियासी चतुष्कोण के दूसरे कोण सपा के युवा नेता अखिलेशजी भी अपनी साइकिल यात्रा के जरिये भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बना रहे हैं, तो कांग्रेस की तरह अपनी खोई जमीन तलाश रही भाजपा के लिए भी यह अहम मुद्दा है। ऐसे में मायावतीजी कुछ और दागी मंत्रियों और विधायकों को बाहर का रास्ता दिखाएं, तो हैरत नहीं होनी चाहिये। अन्ना हजारेजी द्वारा प्रस्तावित लोकपाल बिल में एक अहम् बात है राइट टू रिकॉल ?आइए जानते क्या है राइट टू रिकॉल। 'राइट टू रिकॉल' यानी जनप्रतिनिधियों को कार्यकाल के बीच में ही वापस बुलाने का अधिकार। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें आम आदमी को नियत प्रक्रिया के तहत अपने ऐसे प्रतिनिधियों को बुलाने का अधिकार है जिनके काम से वे असंतुष्ट हैं। हिंदुस्तान में प्रमुख रूप से सबसे पहले लोकनायक जय प्रकाश नारायणजी ने 1970 के दशक में संपूर्ण क्रांति के आह्वान के समय 'राइट टू रिकॉल' लागू करने की बात कही थी। उन्होंने विधायकों और सांसदों को इसके कानूनी दायरे में लाने की पुरजोर मांग की थी। उनका मानना था कि स्वार्थवश अपने लिए काम करने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों को कार्यकाल पूरा होने से पहले से ही बुलाने का कानूनी हक जनता को मिलना चाहिए। स्विटज़रलैंड, अमेरिका, वेनेजुएला और कनाडा जैसे देशों में पहले से ही 'राइट टू रिकॉल' कानून लागू है। अमेरिका में तो इस एक्ट के जरिए अब तक 9 गर्वनरों और मेयरों को बुलाया जा चुका है।
manojjaiswalpbt |
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शानदार आलेख व प्रतिश्रुत् करण अच्छा लगा. दशहरा पर्ब की शुभ कामनाये..
जवाब देंहटाएंGraet post.मनोज जी
जवाब देंहटाएंआपको भी ओंर सभी को दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंGreat Post
जवाब देंहटाएंआपके विचार अच्छे है लेकिन क्या नेता इसे लागू होने देगे ?
जवाब देंहटाएंGreat Post Manoj
जवाब देंहटाएंपोस्ट पर राय के लिए आप सब का हार्दिक धन्यबाद
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