
रहा है।
बाखमैन के हिसाब से राहत की बात है कि यह सिर्फ सैद्धांतिक बात है, सचमुच ऐसा होने की संभावना फिलहाल नहीं है। चुंबकीय क्षेत्र के प्रयोग से झूठ बोलने की प्रवृत्ति खत्म नहीं हुई, झूठ बोलने की आशंका कम हो गई। ऐसा भी नहीं था कि प्रयोग में भाग लेने वालों में सत्य के प्रति आकर्षण बढ़ गया और झूठ बोलने की इच्छा कम हो गई। वैज्ञानिकों ने मोटे तौर पर दिमाग के अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग काम ढूंढ़ तो निकाले हैं, लेकिन इन हिस्सों का श्रम विभाजन बहुत साफ-साफ नहीं है। दिमाग के तमाम कामों में दिमाग के कई हिस्से मिलकर काम करते हैं, इसलिए यह कहना बहुत मुश्किल है कि यही एक हिस्सा झूठ बोलने के लिए जिम्मेदार है, या यह हिस्सा सिर्फ झूठ के लिए है, इसका कोई दूसरा काम नहीं है। यह भी देखा गया है कि अगर दिमाग का कोई हिस्सा बेकार हो जाता है, तो उसका दूसरा कोई हिस्सा उस काम को करने की क्षमता विकसित कर लेता है। हमारी भावनाएं, विचार वगैरा बहुत मिले-जुले होते हैं। हम झूठ और कल्पना को अलग-अलग कैसे कर सकते हैं? संभव है कि झूठ बोलने की क्षमता खत्म होने पर कल्पनाशक्ति भी खत्म हो जाए, जिसके सहारे हम वे बातें सोचते हैं, जो अब तक यथार्थ में नहीं हैं। अगर हम अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलते हैं, तो उसका दूसरा अर्थ होता है और अगर किसी का दिल न दुखे इसके लिए या किसी की भलाई के लिए झूठ बोलते हैं, तो उसका कुछ और अर्थ होता है। मानवीय स्वभाव में काले-सफेद की तरह अच्छे-बुरे का साफ-साफ फर्क नहीं होता, उसमें इनके बीच के अनेक तरह के शेड्स होते हैं। बाखमैन आगाह करते हैं कि इस विषय पर आगे का शोध बहुत सावधानी से करना होगा, ताकि इसका दुरुपयोग न हो सके।(एक शोध पर आधारित )| manojjaiswalpbt |
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good post
जवाब देंहटाएंशानदार आलेख मनोज जी
जवाब देंहटाएंso nice
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