मनोज जैसवाल : ज़िंदगी में आगे बढ़ना मजबूरी है पीछे छूट जाना नियति. मजबूरी आपको बड़ा आदमी बना सकती है. नियति आपको वहीं रख सकती है जहां आप रह जाते हैं. लेकिन बड़े होने में वो आनंद कहां जो रुके होने में हैं. बुद्ध रुके रहे तो बुद्ध कहलाए. हम लोग चलते रह गए. बुद्ध तो क्या बुद्धिमान भी नहीं हो पाए.
मजबूरी में चले थे आज भी मजबूर हैं सो चल रहे हैं जब सूकून होगा तो रुकेंगे और बड़े बुजुर्ग कहते हैं. सूकून मिल जाए तो ज़िंदगी किस काम की.
आज याद आई है एक दोस्त की जिसके साथ दुपहरिया में कच्चे आम तोड़ा करते थे और पहा़ड़ों पर घंटों बैठकर ऊपर से छोटी लगने वाली कॉलोनी को घंटों निहारा करते थे.
झरने के पानी में पत्थर फेंक पर अपनी सपनों की रानी को याद किया करते थे और जब घर में बाइक आई तो दोनों उस पर बैठ कर कॉलोनी की एक गली के खूब चक्कर काटा करते थे.
माशूका को पता नहीं होता था और उसके लिए मार पीट करने पर आमादा होने पर यही दोस्त काम आता था. बिना किसी सवाल जवाब के. उसका एक ही धर्म था..मैंने जो कह दिया बस वही सही है. उसके मामले में मेरा भी यही धर्म था. उसने जो कहा वही सही. मां बाप भाई बहन सब बेकार.
ये खूब चलता है कुछ साल. नए कपड़े, बाइक, लड़कियां, दोस्ती वाली फ़िल्में...फिर या तो एक लड़की आती है या फिर ज़िंदगी आती है और रास्ते खुद ब खुद बदलते हैं.
मैं मजबूर था कॉलोनी छोड़ने को उसकी नियति थी वहीं रुकना. चार पांच साल तक संपर्क रखा फिर मैं बड़ा आदमी हो गया. वो इंसान ही रहा. बड़े शहर के शब्दों में बैकवार्ड और यू नो कॉलोनी पीपुल.
आखिरी बार उसका फोन आया था. उसे क़ानून की पढ़ाई करने के लिए पांच हज़ार रुपए चाहिए थे. मैंने वादा किया था मदद का लेकिन याद नहीं रहा. अब हर साल कॉलोनी जाता हूं और मेरी आंखें उसे तलाश करती हैं.
उसके पापा भी रिटायर हो चुके हैं. कॉलोनी से दूर वो कहीं रहता है. उधर से ट्रेन गुज़रती है तो खिड़की के पास बैठ जाता हूं. शायद वो कहीं दिख जाए. खोजने नहीं जाता हूं डरता हूं मिल जाए तो क्या जवाब दूंगा.
सुना है किसी कोर्ट में प्रैक्टिस करता है. शादी भी हो गई है. छोटे से कस्बे में वो रुका हुआ है. शायद खुश भी हो. रुकना उसकी नियति थी.. मैं अभी भी चल रहा हूं. क्योंकि मैं मजबूर हूं और चलते रहना ही शायद मेरी नियति है.
आलेख : सुशील जी से प्रेरित
मजबूरी में चले थे आज भी मजबूर हैं सो चल रहे हैं जब सूकून होगा तो रुकेंगे और बड़े बुजुर्ग कहते हैं. सूकून मिल जाए तो ज़िंदगी किस काम की.
आज याद आई है एक दोस्त की जिसके साथ दुपहरिया में कच्चे आम तोड़ा करते थे और पहा़ड़ों पर घंटों बैठकर ऊपर से छोटी लगने वाली कॉलोनी को घंटों निहारा करते थे.
झरने के पानी में पत्थर फेंक पर अपनी सपनों की रानी को याद किया करते थे और जब घर में बाइक आई तो दोनों उस पर बैठ कर कॉलोनी की एक गली के खूब चक्कर काटा करते थे.
माशूका को पता नहीं होता था और उसके लिए मार पीट करने पर आमादा होने पर यही दोस्त काम आता था. बिना किसी सवाल जवाब के. उसका एक ही धर्म था..मैंने जो कह दिया बस वही सही है. उसके मामले में मेरा भी यही धर्म था. उसने जो कहा वही सही. मां बाप भाई बहन सब बेकार.
ये खूब चलता है कुछ साल. नए कपड़े, बाइक, लड़कियां, दोस्ती वाली फ़िल्में...फिर या तो एक लड़की आती है या फिर ज़िंदगी आती है और रास्ते खुद ब खुद बदलते हैं.
मैं मजबूर था कॉलोनी छोड़ने को उसकी नियति थी वहीं रुकना. चार पांच साल तक संपर्क रखा फिर मैं बड़ा आदमी हो गया. वो इंसान ही रहा. बड़े शहर के शब्दों में बैकवार्ड और यू नो कॉलोनी पीपुल.
आखिरी बार उसका फोन आया था. उसे क़ानून की पढ़ाई करने के लिए पांच हज़ार रुपए चाहिए थे. मैंने वादा किया था मदद का लेकिन याद नहीं रहा. अब हर साल कॉलोनी जाता हूं और मेरी आंखें उसे तलाश करती हैं.
उसके पापा भी रिटायर हो चुके हैं. कॉलोनी से दूर वो कहीं रहता है. उधर से ट्रेन गुज़रती है तो खिड़की के पास बैठ जाता हूं. शायद वो कहीं दिख जाए. खोजने नहीं जाता हूं डरता हूं मिल जाए तो क्या जवाब दूंगा.
सुना है किसी कोर्ट में प्रैक्टिस करता है. शादी भी हो गई है. छोटे से कस्बे में वो रुका हुआ है. शायद खुश भी हो. रुकना उसकी नियति थी.. मैं अभी भी चल रहा हूं. क्योंकि मैं मजबूर हूं और चलते रहना ही शायद मेरी नियति है.
आलेख : सुशील जी से प्रेरित
कुछ मज़बूरी, कुछ आगे बढ़ने और ऊंचे उठने की ललक. खुद की नज़रों में भी और कुछ सबकी नज़रों में भी. बस यही सब चीज़ें ज़िम्मेदार हैं इन सब परिस्थितियों की. आप लिख कर अपने मन को सांत्वना दे सकते हैं. वैसे अब सारे दोस्त भी बाहर ही आ गए हैं और मेरे ख्याल से वो भी कुछ कुछ ऐसा ही महसूस करते होंगे
जवाब देंहटाएंnice post manoj ji
जवाब देंहटाएंthanks