Tweet मनोज जैसवाल-देश की समस्त भाषाओं को मिलाकर जनसंख्या का लगभग चालीस प्रतिशत हिस्सा भी शिक्षित नहीं है और इसमें से दस प्रतिशत आबादी भी लेखक नहीं है। लेकिन विचित्र है कि शिक्षकों की आबादी का बड़ा हिस्सा आज लेखक बनता जा रहा है। और ऐसी स्थिति देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियम के अनुसार, यदि असिस्टेंट प्रोफेसर को एसोशिएट प्रोफेसर और एसोशिएट प्रोफेसर को प्रोफेसर बनना है, तो इसके लिए शोध प्रबंध तैयार करना जरूरी है। यानी हर प्रोन्नति के लिए एक शोध। और किसी को यह तथ्य बताने की जरूरत नहीं कि यही शोध पत्र किताबों की शक्ल लेते जाते हैं।
ऐसे में, जो लिख नहीं सकते, वे लेखक हैं। प्रायः हर दूसरी किताब पूर्वप्रकाशित अन्य लेखकों की किताबों के संशोधित संस्करण हैं। इनमें से पचास फीसदी किताबें तो पीएचडी थीसिस की अविकल प्रस्तुति हैं और उनचास फीसदी पहले छपी दस किताबों के आधार पर तैयार की गई एक और किताब होती है। हिंदी प्रदेश में फरजी शोध के आधार पर बड़े ओहदों पर पहुंचने और जांच के बाद असलियत सामने आने की बात कोई नई नहीं है। कुछ ही किताबें उन लेखकों द्वारा लिखी गई हैं, जो प्रोफेसर न होते हुए भी लिखते हैं। यानी ये किताबें प्रोन्नति के लिए रातोंरात लिखी जाने के बजाय गहन साधना और अध्यवसाय से लिखी गई हैं, और इसीलिए ये अधिकृत और प्रामाणिक हैं। लेकिन भ्रामक किताबों की भीड़ में इनकी शिनाख्त वही कर सकता है, जिसे विषय की ठीक-ठाक और गहरी समझ हो।
सबसे दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति मंच कला पर लिखी पुस्तकों की है। अव्वल तो मंच और प्रदर्शनकारी कलाओं के शिक्षकों के लिए प्रोन्नति का यह पैमाना होना ही नहीं चाहिए। शंभू मित्र या ओम शिवपुरी जैसे कलाकारों और बड़े गुलाम अली खां और बेगम अख्तर जैसे कंठशिल्पियों की प्रसिद्धि का आधार उनकी किताबें नहीं हैं। फिर इस क्षेत्र में प्रसिद्धि या प्रोन्नति का आधार लिखी गई पुस्तक क्यों हो? लेकिन यहां तो शास्त्रीय संगीत जैसे गंभीर विषय पर भी अगंभीर पुस्तकों की बहुतायत है। ऐसी ही एक किताब हाल में प्रकाशित हुई है, जिसमें बताया गया है कि हरि महाराज के बेटे और कूटताल के विशेषज्ञ पंडित किशन महाराज का 1966 में निधन हो गया। जबकि पंडित किशन महाराज का देहावसान पांच अप्रैल, 2008 को हुआ। उनकी नजरों से भी यह किताब गुजरी थी।
विद्रूप देखिए कि इस पुस्तक की भूमिका सरोद शिल्पी उस्ताद अमजद अली खां से लिखवाई गई! यह प्रोन्नति का ही तकाजा है कि जिन्होंने कभी पढ़ाई में रुचि नहीं ली और संगीत साधना करते रहे, वे अब प्रोफेसर पद के अगले साक्षात्कार से पहले किताब के नाम पर कुछ भी लिखने की साधना कर रहे हैं। नतीजतन विश्वविद्यालयों में हर संगीत शिक्षक लेखक है, भले ही लिखने का सुर और सम अगले जन्म में लगे। विडंबना यह भी है कि गलत सूचनाएं देती ऐसी किताबों पर संगीत समीक्षकों और संगीत सचेतकों का भी ध्यान नहीं है। यानी शास्त्रीय संगीत आज भी शिक्षितों के बहुसंख्य अभिजात्य वर्ग के लिए एक अजूबा है, बेशक इसे समझने का दावा हर कोई करता है। यह स्थिति इस ओर भी इशारा करती है कि शास्त्रीय संगीत के अधिकारी समीक्षक आज कितने कम होते गए हैं। इसी से इस क्षेत्र में भेड़ियाधसान की यह स्थिति बनी है।
ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि बड़े स्तर पर पढ़ी-पढ़ाई जा रही इन गलतियों की ओर ध्यान दिलाने का जिम्मा और जोखिम आखिर कौन उठाएगा? पाठकों और विद्यार्थियों के साथ हो रही इस धारावाहिक हिंसा के विरुद्ध उनके पक्ष में पहल कौन करेगा और यह किसकी जिम्मेदारी बनती है? होना तो यह चाहिए कि ऐसी बेसुरी और अज्ञान का प्रसार करने वाली किताबों को शिक्षा परिसरों से बेदखल कर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अपनी प्राचीन नियमावलियों पर पुनर्विचार करे और शिक्षक एवं कलाकारों का गंभीर समवाय अच्छी और गंभीर पुस्तकों की एक ऐंथोलॉजी तैयार करे। क्या उम्मीद करें कि सरकार की तरफ से यह जरूरी पहल होगी!
manojjaiswalpbt@gmail.com
ऐसे में, जो लिख नहीं सकते, वे लेखक हैं। प्रायः हर दूसरी किताब पूर्वप्रकाशित अन्य लेखकों की किताबों के संशोधित संस्करण हैं। इनमें से पचास फीसदी किताबें तो पीएचडी थीसिस की अविकल प्रस्तुति हैं और उनचास फीसदी पहले छपी दस किताबों के आधार पर तैयार की गई एक और किताब होती है। हिंदी प्रदेश में फरजी शोध के आधार पर बड़े ओहदों पर पहुंचने और जांच के बाद असलियत सामने आने की बात कोई नई नहीं है। कुछ ही किताबें उन लेखकों द्वारा लिखी गई हैं, जो प्रोफेसर न होते हुए भी लिखते हैं। यानी ये किताबें प्रोन्नति के लिए रातोंरात लिखी जाने के बजाय गहन साधना और अध्यवसाय से लिखी गई हैं, और इसीलिए ये अधिकृत और प्रामाणिक हैं। लेकिन भ्रामक किताबों की भीड़ में इनकी शिनाख्त वही कर सकता है, जिसे विषय की ठीक-ठाक और गहरी समझ हो।
सबसे दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति मंच कला पर लिखी पुस्तकों की है। अव्वल तो मंच और प्रदर्शनकारी कलाओं के शिक्षकों के लिए प्रोन्नति का यह पैमाना होना ही नहीं चाहिए। शंभू मित्र या ओम शिवपुरी जैसे कलाकारों और बड़े गुलाम अली खां और बेगम अख्तर जैसे कंठशिल्पियों की प्रसिद्धि का आधार उनकी किताबें नहीं हैं। फिर इस क्षेत्र में प्रसिद्धि या प्रोन्नति का आधार लिखी गई पुस्तक क्यों हो? लेकिन यहां तो शास्त्रीय संगीत जैसे गंभीर विषय पर भी अगंभीर पुस्तकों की बहुतायत है। ऐसी ही एक किताब हाल में प्रकाशित हुई है, जिसमें बताया गया है कि हरि महाराज के बेटे और कूटताल के विशेषज्ञ पंडित किशन महाराज का 1966 में निधन हो गया। जबकि पंडित किशन महाराज का देहावसान पांच अप्रैल, 2008 को हुआ। उनकी नजरों से भी यह किताब गुजरी थी।
विद्रूप देखिए कि इस पुस्तक की भूमिका सरोद शिल्पी उस्ताद अमजद अली खां से लिखवाई गई! यह प्रोन्नति का ही तकाजा है कि जिन्होंने कभी पढ़ाई में रुचि नहीं ली और संगीत साधना करते रहे, वे अब प्रोफेसर पद के अगले साक्षात्कार से पहले किताब के नाम पर कुछ भी लिखने की साधना कर रहे हैं। नतीजतन विश्वविद्यालयों में हर संगीत शिक्षक लेखक है, भले ही लिखने का सुर और सम अगले जन्म में लगे। विडंबना यह भी है कि गलत सूचनाएं देती ऐसी किताबों पर संगीत समीक्षकों और संगीत सचेतकों का भी ध्यान नहीं है। यानी शास्त्रीय संगीत आज भी शिक्षितों के बहुसंख्य अभिजात्य वर्ग के लिए एक अजूबा है, बेशक इसे समझने का दावा हर कोई करता है। यह स्थिति इस ओर भी इशारा करती है कि शास्त्रीय संगीत के अधिकारी समीक्षक आज कितने कम होते गए हैं। इसी से इस क्षेत्र में भेड़ियाधसान की यह स्थिति बनी है।
ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि बड़े स्तर पर पढ़ी-पढ़ाई जा रही इन गलतियों की ओर ध्यान दिलाने का जिम्मा और जोखिम आखिर कौन उठाएगा? पाठकों और विद्यार्थियों के साथ हो रही इस धारावाहिक हिंसा के विरुद्ध उनके पक्ष में पहल कौन करेगा और यह किसकी जिम्मेदारी बनती है? होना तो यह चाहिए कि ऐसी बेसुरी और अज्ञान का प्रसार करने वाली किताबों को शिक्षा परिसरों से बेदखल कर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अपनी प्राचीन नियमावलियों पर पुनर्विचार करे और शिक्षक एवं कलाकारों का गंभीर समवाय अच्छी और गंभीर पुस्तकों की एक ऐंथोलॉजी तैयार करे। क्या उम्मीद करें कि सरकार की तरफ से यह जरूरी पहल होगी!
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