बुधवार

आफ़ताब की भी सुनें...

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मनोज जैसवाल 

30 सितंबर की शाम का हर हिंदुस्तानी की तरह मुझे भी बेसब्री से इंतजार था. मैं जानना चाहता था कि जिसे सब आजाद हिंदुस्तान का सबसे बड़ा फैसला बता रहे हैं और जिस फैसले को लेकर (मालूम नहीं क्यों) मौलाना, पंडित, नेता, अभिनेता, मीडिया सब देशवासियों से अमन-शांति बनाए रखने की अपील कर रहे हैं, वो फैसला क्या आता है और उसके बाद क्या होता है? खैर, तय वक्त से करीब घंटे भर बाद फैसला आया, मैंने फैसला सुना, उसे समझा और फिर बिना किसी को कुछ बताए दफ्तर से निकल गया.
करीब पौन घंटे बाद मैं पुरानी दिल्ली में अपने एक पुराने दोस्त के घर पर था. मैं आफताब से मिलना चाहता था. आफताब, मेरे दोस्त के बड़े भाई का बेटा है, जो इसी साल दस सितंबर को पूरे 18 साल का हुआ है.
मुझे आज भी याद है आफताब के जन्म के मुश्किल से दो महीने बाद ही छह दिसंबर 1992 हुआ था.  पुरानी दिल्ली में कई दिनों तक कर्फ्यू लगा रहा. तब मैं उन लोगों के बेहद करीब हुआ करता था. पूरी पुरानी दिल्ली की सोच को करीब से जानने और महसूस करने का मौका मुझे उन्हीं दिनों मिला था. तब मुझे मजबूरन क्रिकेट का लाइव मैच भी इन्हीं दोस्तों के घर बैठ कर देखना पड़ता था. क्योंकि मेरे वालिद हिंदुस्तान और पाकिस्तान के मैच के दौरान जब भी पाकिस्तान हार रहा होता टीवी बंद कर दिया करते थे. शायद वो पाकिस्तान को हारते नहीं देख सकते थे.
यही हाल मेरे दोस्तों का था. गलती से अगर मैं पाकिस्तान के गिरने वाले विकेट या भारत की तरफ से जड़ने वाले चौके-छक्के पर ताली बजा देता तो एक साथ कई दोस्त मुझे धमका जाते कि अगर उनके साथ बैठ कर मैच देखना है तो भारत की हार पर खुश हों और पाकिस्तान की शिकस्त पर शोक मनाएं. मैच देखने की मजबूरी थी इसलिए अकसर उसी तरह मुझे एक्टिंग करनी पड़ती.
जिस उम्र में आफताब के चाचू से मेरी दोस्ती हुई थी, उसी उम्र में पहुंच चुका आफताब बड़े तमीज़ से मेरे सामने बैठा था. घर में टीवी ऑन था और सभी यहां भी फैसलें की खबरें सुन रहे थे. कुछ देर तक इसी फैसले पर घरवालों से बातचीत करने के बाद मैंने आफताब से पढ़ाई-लिखाई की बातें शुरू कर दीं.
आफताब अपने घर का पहला बेटा है जो अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने गया और जिसने हाल ही में दसवीं का इम्तेहान फर्स्ट डिवीजन से पास किया है. हालांकि इस घर के पांच दूसरे और बच्चे भी अब अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ते हैं. कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद अचानक मैंने आफताब से सीधे वो सवाल पूछ लिया जिसके लिए मैं यहां तक आया था- 'इस फैसले पर तुम्हारी क्या राय है? शायद उसे मुझसे किसी ऐसे सवाल की उम्मीद नहीं थी. इसलिए पहले तो वो थोड़ा ठिठका, पर फिर अचानक बोल पड़ा- 'चाचू जमीन के तीन हिस्से क्यों किए? क्या एक ही हिस्से पर मंदीर-मसजिद नहीं बन सकता था?'
आफताब के इस एक लाइन ने पुरानी दिल्ली की नई सोच मेरे सामने रख दी थी. शायद मैं इसी सोच को समझने के लिए ही आफताब के पास भाग कर गया आया था. आफताब की सोच को जानना मेरे लिए बेहद जरूरी था, क्योंकि छह दिसंबर 92 और आफताब दोनों एक साथ 18 के हुए हैं.
आफताब के साथ-साथ आज इस मुल्क की एक पूरी नई फौज भी 18 की हो गई है. जिसकी सोच शायद आफताब से अलग नहीं है. और हां, आफताब भी क्रिकेट का दीवाना है पर उसका हीरो धोनी है. और अब जब आफताब धोनी के चौके-छक्के पर तालियां पीटता है तब उसका चाचू या मेरे बाकी दोस्त उसे धमकातें नहीं हैं...बल्कि वो भी उसकी ताली से ताल मिलाते हैं
manojjaisalpbt@com

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