.मनोज जैसवाल : प्रथम पूज्य भगवान गणपति का जन्म पर्व गणेश चतुर्थी आज देश भर में मनाई जा रही है। गणेश जी को मनाने के लिए भक्तगण पलक पावडे बिछाए हुए है। इस दौरान मंदिर-मंदिर, घर-घर और द्वार-द्वार पर गणेश जी की पूजा अर्चना की जा रही है। बाजारों में आज सुबह से गुड धाणी, पुजन सामग्री, दूर्वा, फूल माला व डंकों की विशेष खरीदारी हो रही है। विश्व हिन्दू धर्म और संस्कृति को मानने वाले प्रत्येक व्यक्ति के मानस में यह पद रच बस गया है कि कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व मुंह से निकल ही जाता है कि "आइए श्रीगणेश किया जाए"। शिव पार्वती के इस पुत्र की ऎसी क्या महानता है कि उन्हें आद्य-पूजनीय माना जाता है,आज इस बिन्दु पर कुछ विचार किया जाए। पौराणिक कथा है कि माता-पिता के परम भक्त श्रीगणेश थे। एक बार सभी देवगण अपने वाहनों के शक्ति परीक्षण के लिए एकत्र हुए परन्तु गणेशजी असमंजस में थे क्योंकि परीक्षा इस बात की थी कि सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड की परिक्रमा सर्वप्रथम कौन पूरी करेगाक् छोटे से मूषक के साथ यह कैसे संभव होगाक् दौ़ड आरंभ होते ही अति बुद्धिमान गणेशजी ने शिव-पार्वतीजी को प्रणाम कर उन्हीं की प्रदक्षिणा की और प्रतियोगिता में प्रथम आए। उन्होंने इसके पीछे तर्क यह दिया कि माता-पिता मूर्तिमान ब्रम्हाण्ड है तथा उनमें ही सभी तीर्थो का वास है। साथ ही यदि वे माता-पिता स्वयं त्रिपुरारि शिवजी तथा माता-पार्वती हों तो कहना ही क्या है।
सम्पूर्ण देव मंडल उनके इस उत्तर पर साधु-साधु कह उठा तथा उन्हें अपने माता-पिता से "सभी पूजाओं/ विधि विधानों में आद्य पूजन" होने का वरदान मिला। यह उनके बुद्धि कौशल के आधार पर अर्जित वरदान था। स्पष्ट है कि श्रीगणेश की पूजा से आरम्भ की गई विधि में कोई बाधा नहीं आती क्योंकि वे अपने बुद्धि-चातुर्य से प्रत्येक बाधा का शमन कर देते हैं। श्रीगणेश की स्थापना कार्य-विधि के सफल होने की निश्चित गारंटी बन जाती है।
इस कथा से न केवल गणेशजी के बुद्धि कौशल का परिचय मिलता है, बल्कि उनकी अनन्य मातृ-पितृ भक्ति का भी प्रमाण मिलता है। श्रीगणेश के माहात्म्य को दर्शाने वाली अनेक पौराणिक कथाएं वैदिक साहित्य में उपलब्ध हैं। महर्षि वेद-व्यास को जब "महाभारत" की कथा को लिपिबद्ध करने का विचार आया तो आदि देव ब्रम्हाजी ने परम विद्वान श्रीगणेश के नाम का प्रस्ताव रखा। इस पर उनके द्वारा यह शर्त रखी गई कि वे कथा तब लिखेंगे, जब लेखन के समय उनकी लेखनी को विराम न करना प़डे। इससे पूर्व समस्त आर्ष-साहित्य परम्परागत पद्धति से कंठस्थ किया जाता था परन्तु "जय संहिता" जो "महाभारत" कहलाई, प्रथम लिपिबद्ध कथा है अत: स्पष्ट है कि आर्ष साहित्य में लेखन की परम्परा के प्रारम्भकर्ता पार्वती पुत्र ही हैं।
भाद्रपद मास के, शुक्ल पक्ष के, चंद्रमा के दर्शन करने वाले पर चोरी का कलंक लगता है। श्रीकृष्ण भी इससे प्रभावित हुए, ऎसा लोकमत मे प्रचलित है परन्तु यदि त्रुटिवश ऎसा हो जाए तो उसका निदान भी विƒनेश्वर के पास है। कहते हैं कि श्रीगणेश का बारह नामों से पूजन करने से इस कलंक से रक्षा हो जाती है। मैं यह भी बता दूं कि यह स्वत: अनुभूत अनुभव भी है। जिस देवता के नाम से पूजन करने मात्र से ऎसे कलंक से रक्षा हो जाती है, जिससे स्वयं पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण भी नहीं बच सके, उसकी महत्ता, अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है।
किसी व्यक्ति की कुंडली में यदि बुध अथवा राहु की दशा/अन्तर्दशा से पी़डा हो तो श्रीगणेशजी का पूजन उसके निदान हेतु बताया जाता है। "ú गं गणपतये नम:" के जाप के साथ 108दूर्वा तृण उनके चरणों में अर्पित करने से बुध और राहु की दशा/अन्तर्दशा की पी़डा से शांति मिलती है। ये दोनों ही ग्रह व्यक्ति की कुंडली में यदि दुर्बल स्थिति में हों तो घोर मानसिक पी़डा देते हैं तथा बाधाएं उत्पन्न करते हैं। राहु की दशा प्राय: व्यक्ति को घोर विभ्रम की अवस्था में डाल देती है। बुध की दशा/अन्तर्दशा में विशेष रूप से यदि गुरू से संबंधित हो तो "लेखनी की त्रुटि" के कारण मानसिक परेशानियां आती हैं। ऎसे में पुन: श्रीगणेशजी की पूजा ही मानसिक कष्टों और बाधाओं से मुक्ति तथा शांति दिलाती है।
भारतीय धार्मिक साहित्य में जहां गणेशजी को कार्य के शुभारम्भ तथा बाधाओं के प्रशमन का गुरूतर भार सौंपा गया है, वहीं उनके व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष यह है कि उनके संबंध मे बाल-सुलभ चंचलता, अत्यधिक भोजन तथा अन्य देवी-देवताओं के लिए समस्या पैदा करने वाली अनेक कथाएं मिलती हैं। उत्तर भारत में "करवा-चौथ" पर गणेश पूजा अखंड सौभाग्य के लिए की जाती है। साथ ही दादी-नानी के मुंह से चुटुक विनायक की कथा भी सुनने को मिलती है, जिसमें विनायक गणेश निर्धन बुढि़या का घर धन सम्पदा से भर देते हैं। घर की ब़डी बूढि़यों के झुर्री भरे चेहरों पर, यह कथा को सुनाते समय जो चमक आती है और इसके अन्त में जो आशीर्वचन- जैसे इसके दिन फिरे- वैसे सबके दिन फिरे- वो देती हैं, उसका आनन्द गूंगे के गु़ड के समान है। पुन: दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश के पूजन से ही पर्व की शुरूआत होती है। व्यापारी वर्ग विशेष रूप से अपने आने वाले वित्तीय वर्ष में समृद्धि की कामना से मां महालक्ष्मी के साथ गंगाजल की पूजा करते हैं। महाराष्ट्र में गणपति पूजन के समय जनमानस का उत्साह देखते ही बनता है। राष्ट्र 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद घोर अवसाद में था, तब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने सन 1892/93 में पहले गणपति पूजन और फिर शिवाजी जयन्ती को सार्वजनिक उत्सव के रूप मनाना आरम्भ किया। श्रीगणेश जनमानस के देवता थे। उनके पूजन के नाम पर जनता में उत्साह जाग्रत हुआ तथा उसे ही तिलकजी ने राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से जो़ड दिया। ब्रिटिश सरकार की नजरों से बचकर यह जन जागरण का सैलाब श्री गणेश के कारण ही उम़डा और अंतत: भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का महत्वपूर्ण अंग बन गया। आज भी गरीबी, बाढ़, भी़ड, बेरोजगारी आदि समस्याओं के बीच लेजिम और ढोल की थाप पर नाचते हुए मुम्बईकर गणेशमय हो जाते हैं और दस दिन तक सभी लौकिक चिंताओं से दूर हो जाते हैं।
यह गणेशजी का ही प्रभाव है कि सम्पूर्ण महाराष्ट्र, विशेष रूप से मुम्बई धर्म सम्प्रदाय, जाति, भाषा और क्षेत्र की विविधताओं से ऊपर उठकर "गणपति बप्पा" के स्वागत सत्कार में लग जाता है। गणपति बप्पा मोरिया- आला अरसी सावडिया के नारों से गणपति की विदाई भी कुछ कम मार्मिक नहीं होती। भूख-प्यास, आधि-व्याधि, गरीबी-परेशानी सब भूलकर लोग दस दिन के लिए श्रीगणपति की आराधना में समाधिस्थ हो जाते हैं। निश्चय ही श्रीगणेश से अधिक लोकमानस को प्रभावित करने वाला कोई देवता नहीं है। मुम्बई में लाल बाग के बादशाह की विशेष महत्ता है। साथ ही सिद्धि विनायक तो विराजमान हैं ही।
कभी आप इस बात पर ध्यान दें कि श्री अमरनाथजी की पवित्र गुफा से लेकर रामनरेश महादेव तथा मां कामाख्या देवी से लेकर सोमनाथजी तक प्रत्येक मंदिर में प्रवेश से पूर्व श्री गणेश विराजमान रहते हैं। श्रद्धालु को जब गणेशजी के दर्शन होते हैं तो अपने आराध्य देव के दर्शन की आशा से उसका मन उल्फुल्लित हो जाता है और अपनी सारी थकान भूल जाता है। ऎसी महिमा गजानन की है इसीलिए चाहे मोतीडूंगरी के गणेश हों या मुम्बई के सिद्धि विनायक अथवा देश में स्थापित गणेशजी की अन्य सिद्ध पीठ, सदैव से ही भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने के कारण भक्तजनों की श्रद्धा का केन्द्र बने रहते हैं।
मां पार्वती तथा देवाधिदेव महादेव के प्रिय पुत्र श्रीगणेश की कृपा के बिना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता इसीलिए पूजन के अंत मे आशीर्वचन के रूप मे पंडित जी यह मंगल कामना करते हैं कि "यान्तु देवगणा: सर्वे।" अर्थात् सभी देवी देवता, जिन्हें पूजन के लिए आमंत्रित किया गया था, अपने-अपने स्थानों को पधारें तथा मंगल कार्य होने पर उन्हें फिर बुलाया जाएगा परन्तु लक्ष्मी-गणेश एवं ऋद्धि-सिद्धि यहीं विराजमान रहें। स्पष्ट है कि माता लक्ष्मी और श्रीगणेश अपनी सहधर्मिणी ऋद्धि-सिद्धि के साथ जब कृपा करते हैं तभी मानव का लौकिक तथा परलौकिक जीवन सफल हो पाता है। श्रीगणेश की महिमा को लिपिबद्ध करने में मेरी अल्पबुद्धि स्वयं को असमर्थ पाती है अत: इस निवेदन के साथ कि श्रीगणेशजी सभी का कल्याण करें- लेखनी को विराम दे रहा हू ।
manojjaiswalpbt |
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अत्यंत सुन्दर ज्ञान बाटने से ही ज्ञान की जानकारी
जवाब देंहटाएंमिलती है.