मनोज जैसवाल : केंद्र सरकार ने गरीब की नई परिभाषा तय की है। शहरों में एक दिन में 32 रुपए खर्च करने वाला अब गरीब नहीं माना जाएगा। भले ही 32 रुपए में एक वक्त का खाना न आता हो लेकिन योजना आयोग की नज़र में इतने रुपये गरीबी दूर करने के लिए काफी हैं। आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करके गरीबी की यही लकीर खींची है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो ये रेखा और भी नीचे है। गांवों में रहने वाले अगर रोजाना 26 रुपए खर्च करते हैं तो वे गरीब नहीं हैं। वैसे आयोग के मुताबिक 26 और 32 रुपए में सिर्फ खाने का खर्च नहीं बल्कि किराए, कपड़ा, स्वास्थ्य और शिक्षा का खर्च भी शामिल है। यानी महीने में शहरों में 965 रुपए और गांवों में 781 रुपए खर्च करने वाला, सरकार की नज़र में गरीब नहीं है। सरकार उसे अपनी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं देगी।
जाहिर है गरीबी के नए पैमाने को हास्यास्पद कहा जा रहा है। लेकिन इन सबसे बेफिक्र योजना आयोग के नए पैमाने के मुताबिक गरीबी रेखा से उपर रहने वाला शहरी, अनाज पर 5 रुपए प्रति दिन से ज्यादा खर्च करता है। इसी तरह वो सब्जियों पर 1 रुपए 80 पैसे, दाल पर 1 रुपए और दूध पर 2 रुपए 30 पैसे खर्च करता है। तेल और रसोई गैस मिलाकर महीने में 112 रुपए खर्च करने वाला भी गरीब नहीं है।हकीकत ये है कि दिल्ली में 5 रुपए में आप 136 ग्राम चावल या 166 ग्राम गेहूं ही खरीद सकते हैं। 1 रुपए 80 पैसे में 180 ग्राम आलू या 90 ग्राम प्याज, 90 ग्राम टमाटर या फिर 180 ग्राम लौकी खरीद सकते हैं। ऐसे ही 1 रुपए में 20 ग्राम दाल ही मिल पाएगी। ढाई रुपए से कम में दूध मिलेगा सिर्फ 85 मिली लीटर। और 112 रुपए में आप डेढ़ किलो रसोई गैस से ज्यादा नहीं खरीद सकते।
जाहिर है, इतने राशन में एक वक्त भी भरपेट खाना नहीं खाया जा सकता। लेकिन 32 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले शहरी सरकार से कोई उम्मीद ना करें। क्योंकि वे गरीबी रेखा से ऊपर हो चुके हैं। यानी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का फायदा उन्हें नहीं मिलेगा। जाहिर है, इस रेखा को मजाक बताने वालों की कमी नहीं है। खाद्य विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हैं कि हम तो सुप्रीम कोर्ट के बहुत ही शुक्रगुजार हैं क्योंकि पहले ये रेट 20 रुपया था जो अब बढ़ाकर 32 किया गया है। इस पैसे में भी गरीब आदमी का पेट नहीं भर सकता। ये इस देश का दुर्भाग्य है कि प्लानिंग कमीशन जमीनी हकीकत नहीं जानता।
जानकारों की इस टिप्पणी के बाद सरकार को कोई जवाब नहीं सूझ रहा। खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री वी थॉमस कहते हैं कि आयोग ने अपनी राय दी है। हम उसपर चर्चा करेंगे। हम आयोग पर टिप्पणी नहीं करते, न ही पब्लिक में उसपर डिबेट करते हैं। वैसे आंकड़े कुछ भी कहें, योजना आयोग की नई गरीबी रेखा ने एक बार फिर गरीबों की पहचान को लेकर बहस छेड़ दी है। भारत में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग कुल आबादी का साढ़े 37 फीसदी हैं। ये सरकारी आंकड़ा है वरना कुछ अर्थशास्त्री तो इसे 77 फीसदी तक मानते हैं। बहरहाल, सवाल ये उठता है कि गरीबी रेखा का आधार क्या है।
दरअसल, इसे तय करने के लिए योजना आयोग के पास बाकायदा एक फॉर्मूला है। इस फार्मूले के मुताबिक देश की आधी आबादी जिस चीज पर जितना खर्च करती है उसे औसत मान लिया जाता है। जैसे महंगाई के लिए अब तक आधार वर्ष माने गए 2005-2006 में जनता अनाज पर औसतन 96 रुपए प्रति माह खर्च करती थी। यानी अनाज पर इससे ज्यादा खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना जाता।
योजना आयोग ने गरीबी को मापने के लिए ऐसी ही 24 चीजों को आधार बनाया है। इनमें अनाज, सब्जियां, दूध, पेट्रोल जैसी चीजों के अलावा स्वास्थ्य और मकान के किराये पर होने वाला खर्च भी शामिल है। इसी आधार पर सरकार ने तय किया था कि शहरों में 578 रुपए और ग्रामीण क्षेत्रों 447 रुपये प्रति माह से ज्यादा खर्च करने वाले गरीबी रेखा के ऊपर हैं। इधर, सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए अपने हलफनामे में 2010-2011 को मुद्रास्फीति का आधार वर्ष मानते हुए सरकार ने शहरों में 32 रुपये प्रतिदिन और गांव में 25 रुपये प्रति दिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर माना है।
जाहिर है, जानकार इस फार्मूले पर गंभीर सवाल उठाते रहे हैं। मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के मुताबिक योजना आयोग ने गरीबी रेखा से ऊपर जाने के लिए स्वास्थ्य पर प्रतिदिन 1 रुपए का खर्च काफी बताया है। ये कैसे काफी हो सकता है, जब एक रुपए में एस्प्रिन की एक टैबलेट भी नहीं आती।
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सुन्दर आलेख
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