बुधवार

बाकी जाए तेल लेने?

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लेखक -मनोज जैसवाल
केरल के सबरीमाला में भगदड़ के दौरान 104 निर्दोष लोग जान से हाथ धो बैठे। वजह बनी भीड़ में एक जीप का घुस आना। उस ड्राइवर ने यह नहीं सोचा कि इतनी भीड़ में अगर वह गाड़ी को ले जाएगा तो कोई दुर्घटना भी घट सकती है। ऐसा भी नहीं है कि यह इस तरह की पहली और अंतिम घटना है। पहले भी भगदड़ की अन्य घटनाओं में हमारा गलत व्यवहार और लापरवाही ही इसकी वजहें रही हैं। इस तरह की घटनाओं ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर हम किसी सार्वजनिक जगहों पर सिर्फ अपने बारे में ही क्यों सोचते हैं? क्यों हम दूसरों के नुकसान के प्रति इतने लापरवाह हो जाते हैं। क्यों हमारा व्यवहार इतना गैरजिम्मेदाराना हो जाता है। शायद हम यही सोच बैठते हैं कि इसमें अपना क्या जाता है।

हम घर से बाहर निकलते ही अपनी विनम्रता और धैर्य को ऐसे त्याग देते हैं, जैसे अभी-अभी किसी को उधार देकर लौटे हों। एक छोटी सी बात पर सामने वाले पर इतने आक्रामक हो जाते हैं कि हमारा खुद का नियंत्रण अपने ऊपर भी नहीं रह जाता है। कहीं भी जाएं, चाहे वो सड़क हो, रेलवे स्टेशन, मेट्रो स्टेशन, बाजार, मेला या कोई धार्मिक स्थल ही क्यों न हों, क्या हम वहां अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए सही व्यवहार करते हैं? आज इंसान इतने आवेश में है कि दिल्ली की सड़कों पर अगर गलती से गाड़ी के दरवाजे से चिकन प्लेट गिर जाती है तो उसकी कीमत कार ड्राइवर को गोली मार कर वसूल ली जाती है। हद तो तब हो जाती है, जब शहर में एक व्यक्ति सिगरेट की एक कश न देने पर अपने दोस्त की जान ले लेता है। यह तो कुछ उदाहरण भर हैं। ऐसे कई वाकये हर रोज हम और आप देखते हैं और उससे रूबरू भी होते हैं।
लोग तर्क देते हैं कि वो मूर्ख है, इसलिए उसका व्यवहार ऐसा है। लेकिन महानगरों की हकीकत पर जब नजर पड़ती है तो ये शहरी, सभ्य और पढ़े-लिखे होने का दंभ भरने वाले लोग तो सबरीमाला के हादसे का जिम्मेदार जीप ड्राइवर से ज्यादा मूर्ख प्रतीत होते हैं। वरना क्या वजह है कि शहर की चमचमाती सड़कों पर सूट और टाई पहने लोग सड़कों पर एक दूसरे को गाली गलौज व मारपीट करते नजर आते हैं। मेट्रो ट्रेन में चढ़ते और उतरते समय की स्थिति ऐसी होती है, जैसे किसी को कोई खजाना दिख गया हो और उसे लूटने के लिए वो पूरा जोर लगा देते हैं। अगर सीट लूटने में कामयाब हुए तो चेहरे पर संतोष का भाव ऐसे दिखता है जैसे कोई परमवीर चक्र पाने वालों में नाम जुड़ गया हो और अगर सीट नहीं लूट सके तो चेहरा ऐसे उतर जाता है जैसे किसी ने अभी-अभी जज ने फांसी की सजा सुना दी हो। चाहे इस दौरान किसी बुजुर्ग, महिला और बच्चे के साथ कोई हादसा ही क्यों न हो जाए, हमें इसकी फिक्र कहां, हमें तो बस अपने से मतलब है। बाकी जाए तेल लेने, अपने बाप का क्या जाता है?
एक जिम्मेदार इंसान और नागरिक के रूप में हमें वैसे सभी सार्वजनिक स्थलों जहां लोग बड़ी संख्या में होते हैं, में अपने व्यवहार में विनम्रता लानी होगी। दूसरों के प्रति भी जिम्मेदारी का एहसास हो, हमें इस तरह से सोचना होगा। वरना, इसमें कोई शक नहीं कि अगले किसी भगदड़ या दूसरी अन्य हादसे का शिकार कहीं हम ही न हो जाएं
manojjaiswalpbt@gmail.com

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