बेहद महंगे हो गए हैं अस्पताल
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सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियों ने प्रीफर्ड प्रोवाइडर नेटवर्क (पीपीएन) का जो खाका पेश किया था उसको लेकर मुश्किल खड़ी हो गई है। चिकित्सा सेवाएं मुहैया कराने वालों के पास न तो इलाज का कोई मानक है, इलाज के लिए वे कितना पैसा वसूलते हैं इसके लिए भी पैमाना नहीं है, कुछ गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए भी कोई निश्चित खाका नहीं है, कुल मिलाकर इनका महंगा इलाज आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर हो गया है।
पीपीएन तंत्र में स्वास्थ्य बीमा करने वाली कंपनी ही फाइनैंसर का काम करती है लेकिन कुछ वजहों से इन कंपनियों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। वैसे तो बीमा क्षेत्र में स्वास्थ्य बीमा चमकता हुआ कारोबार है और पिछले एक दशक में इसकी चक्रवृद्घि बढ़ोतरी दर 35 फीसदी रही है और वर्ष 2009-10 के दौरान इसका आकार 8,300 करोड़ रुपये हो गया।
हालांकि देश की अभी महज 10 फीसदी से भी कम आबादी स्वास्थ्य बीमा के तले आती है। इस लिहाज से इस क्षेत्र में अंतहीन संभावनाएं हैं। ऐसे में गड़बड़झाले और झूठे दावे इस उभरते हुए क्षेत्र की रफ्तार पर बुरा असर डाल रहे हैं। ग्राहक भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। उनके स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम भी बढ़ सकता है।
तकरीबन सभी स्वास्थ्य बीमा सेवा प्रदाता ग्राहकों को अस्पताल में या तो सीधे या फिर टीपीए के जरिये कैशलैस इलाज की सुविधा मुहैया कराती हैं। मरीज अस्पताल में भर्ती हो जाता है और उसे अपनी जेब में हाथ नहीं डालना पड़ता जबकि बीमा कंपनी सीधे ही अस्पताल के साथ उसके बिल का निपटान करती है।
इसके तहत ही 'नेटवर्क हॉस्पिटल' श्रृंखला का उदय हुआ। बीमा कंपनी और चिकित्सा सेवा प्रदाता के बीच सहमति पत्र का फायदा आखिरकार ग्राहक को ही मिलता है। देश के लगभग हर इलाके में ग्राहकों को हर तरह की स्वास्थ्य सेवाएं इसके जरिये मिलीं। इसमें बुनियादी और प्रीमियम सभी तरह की सेवाएं शामिल हैं। हालांकि साथ ही चिकित्सा सेवाओं की दर इतनी बढ़ती गई जो फिलहाल खतरनाक स्तर पर पहुंच गई हैं।
बढ़ते प्रीमियम को देखते हुए एक स्थिति यह भी आ सकती है कि आम आदमी के लिए स्वास्थ्य बीमा दूर की कौड़ी नजर आने लगे। मौजूदा दौर में बीमा कंपनियों का ध्यान एक बेहतर दावा प्रबंधन प्रणाली विकसित करने पर है। दावों का निपटान इन दिनों बीमा कंपनियों के लिए कड़ी चुनौती बनता जा रहा है और इनके प्रबंधन के लिए बेहतर तरीका वक्त की जरूरत है।
बेहतर हुआ इलाज और देखभाल
डॉ. परवेज अहमद सीईओ और एमडी मैक्स हेल्थकेयर इंस्टीट्यूट लि.
फिलहाल जिस मसले पर विवाद चल रहा है उसमें कई तरह के झूठ का बखान किया जा रहा है। खासतौर से इस बात के मद्देनजर तो यह बात और भी झूठ का पुलिंदा लगती है क्योंकि बीमा कंपनियों और चिकित्सा सेवाएं मुहैया कराने वालों का अंतिम लक्ष्य ग्राहकों को किफायती दरों पर सेवा मुहैया कराना है।
कॉर्पोरेट अस्पतालों ने बेहतरीन चिकित्सा सेवाओं का सूत्रपात किया है और काम का एक बेहतरीन ढांचा तैयार किया है। एक ऐसे कारोबार में जहां पर अभी भी गड़बडिय़ां कायम हैं वहां पर इन अस्पतालों ने पारदर्शी मॉडल पेश किया है। यह भी अजीब विडंबना है कि जिन कॉर्पोरेट अस्पतालों ने यह सब किया उन्हें ही पारदर्शिता और उलूल-जुलूल भुगतान के लिए कटघरे में खड़ा किया जा रहा है।
मुझे लगता है कि जिस मसले का आसानी से एक समाधान निकल सकता था वह बीमा कंपनियों के एकतरफा फैसले की वजह से फंस सा गया है। मैं कह सकता हूं कि भारत में चिकित्सा सेवा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आया है। हमारे पास आज बेहतरीन तकनीक, बुनियादी ढांचा और कई ऐसी असाध्य बीमारियों का इलाज मौजूद है जिसका इलाज कराने के लिए पहले विदेश जाना पड़ता था।
हालांकि मुद्रास्फीतिक दबाव का असर भी देखने को मिल रहा है क्योंकि 30 साल पहले जिस बीमारी के इलाज के लिए जितना खर्च आता था अब वह खर्चा बढ़ गया है। इस बुनियाद पर कई लोग बेवजह का अंदाज लगा रहे हैं कि अस्पताल इलाज के लिए जरूरत से ज्यादा पैसा वसूल कर रहे हैं। वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान आईआरडीए के आंकड़ों के मुताबिक कुल किए गए दावों में से 7 फीसदी महंगे अस्पतालों के किए गए जो कुल दावों के मूल्य के 40 फीसदी के बराबर थे।
वहीं अगर 93 फीसदी दावों की बात करें तो यह छोटे अस्पतालों और नर्सिंग होम के थे जो कुल वैल्यू के 60 फीसदी के बराबर थे। आंकड़े इस बात को पुष्ट करते हैं कि करीब 95 फीसदी से भी अधिक मामलों में बिलों में किसी भी तरह से बिल को बढ़ा-चढ़ा कर पेश नहीं किया गया था।
हम मानते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के इस पूरे तंत्र में सरकारी बीमा कंपनियां एक अहम कड़ी है और वे लगातार नुकसान नहीं झेल सकतीं। हमारे हिसाब से अपने नुकसान को कम करने और कारोबार को बेहतर तरीके से चलाने के लिए ये कंपनियां अस्पताल की हैसियत के हिसाब से बीमा पॉलिसियां बना सकती हैं।
कंपनियां ग्रुप इंश्योरेंस के लिए भी वाजिब कीमतें तय कर सकती हैं। वे को-पे के छोटे अकाउंट भी शुरू कर सकती हैं
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सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कंपनियों ने प्रीफर्ड प्रोवाइडर नेटवर्क (पीपीएन) का जो खाका पेश किया था उसको लेकर मुश्किल खड़ी हो गई है। चिकित्सा सेवाएं मुहैया कराने वालों के पास न तो इलाज का कोई मानक है, इलाज के लिए वे कितना पैसा वसूलते हैं इसके लिए भी पैमाना नहीं है, कुछ गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए भी कोई निश्चित खाका नहीं है, कुल मिलाकर इनका महंगा इलाज आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर हो गया है।
पीपीएन तंत्र में स्वास्थ्य बीमा करने वाली कंपनी ही फाइनैंसर का काम करती है लेकिन कुछ वजहों से इन कंपनियों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। वैसे तो बीमा क्षेत्र में स्वास्थ्य बीमा चमकता हुआ कारोबार है और पिछले एक दशक में इसकी चक्रवृद्घि बढ़ोतरी दर 35 फीसदी रही है और वर्ष 2009-10 के दौरान इसका आकार 8,300 करोड़ रुपये हो गया।
हालांकि देश की अभी महज 10 फीसदी से भी कम आबादी स्वास्थ्य बीमा के तले आती है। इस लिहाज से इस क्षेत्र में अंतहीन संभावनाएं हैं। ऐसे में गड़बड़झाले और झूठे दावे इस उभरते हुए क्षेत्र की रफ्तार पर बुरा असर डाल रहे हैं। ग्राहक भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। उनके स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम भी बढ़ सकता है।
तकरीबन सभी स्वास्थ्य बीमा सेवा प्रदाता ग्राहकों को अस्पताल में या तो सीधे या फिर टीपीए के जरिये कैशलैस इलाज की सुविधा मुहैया कराती हैं। मरीज अस्पताल में भर्ती हो जाता है और उसे अपनी जेब में हाथ नहीं डालना पड़ता जबकि बीमा कंपनी सीधे ही अस्पताल के साथ उसके बिल का निपटान करती है।
इसके तहत ही 'नेटवर्क हॉस्पिटल' श्रृंखला का उदय हुआ। बीमा कंपनी और चिकित्सा सेवा प्रदाता के बीच सहमति पत्र का फायदा आखिरकार ग्राहक को ही मिलता है। देश के लगभग हर इलाके में ग्राहकों को हर तरह की स्वास्थ्य सेवाएं इसके जरिये मिलीं। इसमें बुनियादी और प्रीमियम सभी तरह की सेवाएं शामिल हैं। हालांकि साथ ही चिकित्सा सेवाओं की दर इतनी बढ़ती गई जो फिलहाल खतरनाक स्तर पर पहुंच गई हैं।
बढ़ते प्रीमियम को देखते हुए एक स्थिति यह भी आ सकती है कि आम आदमी के लिए स्वास्थ्य बीमा दूर की कौड़ी नजर आने लगे। मौजूदा दौर में बीमा कंपनियों का ध्यान एक बेहतर दावा प्रबंधन प्रणाली विकसित करने पर है। दावों का निपटान इन दिनों बीमा कंपनियों के लिए कड़ी चुनौती बनता जा रहा है और इनके प्रबंधन के लिए बेहतर तरीका वक्त की जरूरत है।
बेहतर हुआ इलाज और देखभाल
डॉ. परवेज अहमद सीईओ और एमडी मैक्स हेल्थकेयर इंस्टीट्यूट लि.
फिलहाल जिस मसले पर विवाद चल रहा है उसमें कई तरह के झूठ का बखान किया जा रहा है। खासतौर से इस बात के मद्देनजर तो यह बात और भी झूठ का पुलिंदा लगती है क्योंकि बीमा कंपनियों और चिकित्सा सेवाएं मुहैया कराने वालों का अंतिम लक्ष्य ग्राहकों को किफायती दरों पर सेवा मुहैया कराना है।
कॉर्पोरेट अस्पतालों ने बेहतरीन चिकित्सा सेवाओं का सूत्रपात किया है और काम का एक बेहतरीन ढांचा तैयार किया है। एक ऐसे कारोबार में जहां पर अभी भी गड़बडिय़ां कायम हैं वहां पर इन अस्पतालों ने पारदर्शी मॉडल पेश किया है। यह भी अजीब विडंबना है कि जिन कॉर्पोरेट अस्पतालों ने यह सब किया उन्हें ही पारदर्शिता और उलूल-जुलूल भुगतान के लिए कटघरे में खड़ा किया जा रहा है।
मुझे लगता है कि जिस मसले का आसानी से एक समाधान निकल सकता था वह बीमा कंपनियों के एकतरफा फैसले की वजह से फंस सा गया है। मैं कह सकता हूं कि भारत में चिकित्सा सेवा क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आया है। हमारे पास आज बेहतरीन तकनीक, बुनियादी ढांचा और कई ऐसी असाध्य बीमारियों का इलाज मौजूद है जिसका इलाज कराने के लिए पहले विदेश जाना पड़ता था।
हालांकि मुद्रास्फीतिक दबाव का असर भी देखने को मिल रहा है क्योंकि 30 साल पहले जिस बीमारी के इलाज के लिए जितना खर्च आता था अब वह खर्चा बढ़ गया है। इस बुनियाद पर कई लोग बेवजह का अंदाज लगा रहे हैं कि अस्पताल इलाज के लिए जरूरत से ज्यादा पैसा वसूल कर रहे हैं। वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान आईआरडीए के आंकड़ों के मुताबिक कुल किए गए दावों में से 7 फीसदी महंगे अस्पतालों के किए गए जो कुल दावों के मूल्य के 40 फीसदी के बराबर थे।
वहीं अगर 93 फीसदी दावों की बात करें तो यह छोटे अस्पतालों और नर्सिंग होम के थे जो कुल वैल्यू के 60 फीसदी के बराबर थे। आंकड़े इस बात को पुष्ट करते हैं कि करीब 95 फीसदी से भी अधिक मामलों में बिलों में किसी भी तरह से बिल को बढ़ा-चढ़ा कर पेश नहीं किया गया था।
हम मानते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के इस पूरे तंत्र में सरकारी बीमा कंपनियां एक अहम कड़ी है और वे लगातार नुकसान नहीं झेल सकतीं। हमारे हिसाब से अपने नुकसान को कम करने और कारोबार को बेहतर तरीके से चलाने के लिए ये कंपनियां अस्पताल की हैसियत के हिसाब से बीमा पॉलिसियां बना सकती हैं।
कंपनियां ग्रुप इंश्योरेंस के लिए भी वाजिब कीमतें तय कर सकती हैं। वे को-पे के छोटे अकाउंट भी शुरू कर सकती हैं
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